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Sunday, July 19, 2020

भुभु जोत यात्रा: चुहार घाटी (सिल्ह्बुधानी) से लग घाटी (कढ़ोन) की सैर

भुभु जोत और उसके साथ लगता महाजनी टिब्बा 

भुभु जोत धौलाधार पर्वत श्रृंखला से निकले द्वितयक अक्ष में पाया जाता है। यह द्वितयक अक्ष, मुख्य अक्ष  से छोटा भंगाल के लोहार्डी क्षेत्र के आस-पास से अलग होता है। मैं  वर्तमान में इसी अक्ष के साथ लगते क्षेत्र में वन रक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा हूँ। दिसम्बर 2016 में मैं वन विभाग हिमाचल प्रदेश में भर्ती हुआ था। भर्ती होने तक मुझे विभाग के बारे ज्यादा जानकारी नहीं थी। मुझे यह भी ज्ञात नहीं था कि जिस क्षेत्र को वन रक्षक को सम्भालना होता है वह बीट कहलाती है। और ऐसी कौन-2 सी बीटें मेरे क्षेत्र में हैं। जब पोस्टिंग लेटर हाथ लगा तो पता चला कि किसी हुरंग नामक बीट में जाना है। इस बारे अधिक छानबीन की गयी तो यह जानकारी मिली कि यह वही क्षेत्र है जहाँ देवता हुरंग नारायण का मन्दिर है और यहीं से भूभू जोत जाया जाता है। शायद मुझपर देवता की अपार कृपा थी जो देवता ने मुझे अपनी शरण में जगह दी।

चुहार घाटी कुल 4 इलाकों में बंटा है जिनके नाम कुट्गढ़, देवगढ़, हस्तपुर और अमरगढ़ है। मार्च 2016 को मैंने पहली बार घाटी के इलाका हस्तपुर में कदम रखा। बाकी इलाकों में मैं पहले भी जा चुका था। यहाँ मुझे तीन चीज़ों ने बहुत आकर्षित किया वह थे यहाँ का वन विश्राम गृह सिल्हबुधानी, देवता हुरंग नारयण मन्दिर और भुभु जोत। शुरू के २ मुख्य आकर्षण के बारे में मैं आपको जरुर बताना चाहूँगा तीसरे के बारे में आप इस पूरी यात्रा के दौरान जान ही लेंगे।

घटासनी से वन विश्राम गृह सिल्हबुधानी पहुंचने के लिए सड़क दिखाता मानचित्र 

वन विश्राम गृह सिल्ह्बुधानी (डाक बंगलो)

वन विश्राम गृह सिल्हबुधानी घटासनी से लगभग 25 KM की दूरी पर स्थित है। इसका इतिहास बहुत रोचक रहा है। इसे अंग्रेजों के समय डाक बंगलो कहा जाता था। अंग्रेजों के शासन के दौरान उन्नीसवीं सदी में जगह-2 ऐसे ही डाक बंगलो का निर्माण किया गया था। उस दौरान क्योंकि सड़क नहीं हुआ करती थी तो लम्बे सफर में आते जाते हुए इन्ही में विश्राम किया जाता था। आज भी कई स्थानीय बुजुर्ग इसे बंगलो के नाम से ही जानते हैं। इसकी पुरानी जगह कुंगडी नामक गाँव से कुछ ही दूरी पर थी। वर्ष 1905 के काँगड़ा भूकंप में यह डाक बंगलो पूरी तरह टूट गया। इसके पुनः निर्माण के लिए ग्रामण नामक गाँव से कुछ ही उपर एक नई जगह (वर्तमान जगह) चुनी गयी। और इस तरह लगभग वर्ष 1913 में यह नया डाक बंगलो बनकर तैयार हुआ। बंगलो के पुराने विजिटर रजिस्टर में आज भी वर्ष 1942 से आगे की एंट्री पढ़ी जा सकती है।

विश्राम गृह के विजिटर बुक में दर्ज सबसे पुरानी हाजिरी 

देवता हुरंग नारयण मन्दिर (हुरंग)

देवता हुरंग नारयण को चुहार घाटी का राजा कहा जाता है। इनका मुख्य मन्दिर हुरंग नामक गाँव पर स्थित है। यह वन विश्राम गृह सिल्हबुधानी से लगभग 10 KM की दुरी (वाया रोड) और घटासनी से 35 KM की दुरी पर स्थित है। आहलंग गाँव तक सड़क काफी अच्छी स्थिति में है। लेकिन आगे के 4 KM के सफर में ड्राईवर एक अलग ही स्तर का एडवेंचर अनुभव करता है। गाड़ी, गाड़ी न रहकर PK फिल्म की डांसिंग गाड़ी बन जाती है। हुरंग नारयण को पर्यावरण प्रेमी देऊ भी कहा जाता है। मन्दिर के आस पास का कुल 17-18 hactare का देवदार और बान का जंगल देवता ही नियंत्रित करते हैं। इसमें लगभग 7,8 hactare के बान के जंगल को देऊ बणी (देवता का निजी वन) के नाम से जाना जाता है। इसमें आना जाना और किसी भी तरह के लोहे के हथियार ले जाना वर्जित है। स्थानीय हुरंग निवासी भी इस जंगल में कभी-२ देवता के काम के लिए ही जाते हैं। मन्दिर परिवेश में सिवाय मदिरा के चमडा बीडी,सिगरेट और खेनी जैसा किसी भी तरह का नशीला पदार्थ ले जाना वर्जित किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि हिमालय की बहुत सी जड़ी बूटियों से बनी एक खास तरह की मदिरा जिसे स्थानीय भाषा में ध्रुब्ली और सूर कहते हैं, देवता को भी चढाई जाती है।

हुरंग नारयण मन्दिर और देवता के द्वारा नियंत्रित किया जाने वाले जंगल का गूगल मानचित्र 

कैसे यहाँ आकर जंगल की भागदौड़ में दो-ढाई महीने बीत गये कुछ पता न चला। शाम को सूर्यास्त के समय का भुभु का वो सुनहरा रूप मुझे हर दिन अपनी ओर आकर्षित करता था। मन यहीं शांत न होकर काल्पनिक दुनिया में उड़ने लगता था। दिन यूँ ही निकलते गये, पर काम के चलते हमारा कभी भी भुभु जोत जाने का इरादा सफल नहीं हो पाया।

इसी बीच 17 जून की शाम को वन विश्राम गृह सिल्ह्बुधानी में कुछ घुमक्कड़ों का आना हुआ। जिन्हें अगले दिन सुबह भुभु जोत होकर कुल्लू जाना था। हमारे तत्कालीन चौकीदार "रूपलाल" से उनकी कुछ बात हुयी परन्तु जनाब कुछ कारणों से उन्हें टेंट स्थापित करने की जगह देने से मुकर गये। मामला किसी तरह हम तक पहुंचा तो हमने पूरी बात सुनने के बाद उन्हें वहां टेंट स्थापित करने की इजाजत दे दी। वे कुल 5 लोगों का समूह थे। जिसमे 2 विदेशी (1 पुरुष,1 स्त्री) और 3 स्वदेशी थे। इन 3 स्वदेशियों में 2 पोर्टर-कम-गाइड-कम-कुक थे और एक उन्हीं 2 विदेशियों की तरह घुमक्कड़, जिनका नाम वरुणवीर पुंज था। यहाँ सेफ कैंपस में रहने की सेटिंग करवाने से वे सब बहुत खुश थे। इस बात को वरुणवीर भाई ने अंग्रेजी में विदेशियों को समझाया तो उन में से फीमेल घुमक्कड़ ने मुझे सबसे पहले गले लगाकर धन्यवाद दिया।

थैंक यू, यू हेल्प अस,

दे (वरुण एंड पोर्टर) टोल्ड मी.

एक हंसी के साथ मैं कुछ कह नहीं पाया।

मुझे उम्मीद नहीं थी कि जिस तरह की सख्ती उनके साथ चौकीदार ने की थी उसके बाद भी वे हमारा इतना अहसान रखेंगे।

जान पहचान में पता चला कि हमारे दोनों विदेशी मेहमानों का नाम Mate और Menina flor है। लम्बी चौड़ी कद काठी के वरुण भाई से शाम को काफी लम्बी चर्चा हुयी। जिनमें उनका अब तक का सफर और वन एवं पर्यावरण मुख्य विषय रहे। चर्चा के बीच उन्होंने मुझे एक रोचक बात बताई

“यू नो, यह सभी पेड़ पौधे हमारे समाज की तरह है जो एक दुसरे से अपनी रूट सिस्टम से बंधे हैं और जब हम किसी एक को भी नुक्सान पहुंचाते हैं तो ये जड़ों के जरिये एक दुसरे को संदेश पहुंचाते हैं”

यह बात सुनकर मुझे वरुण भाई कुछ ज्यादा ही काल्पनिक दुनिया के व्यक्ति लग रहे थे। मैं कम ज्ञान का मारा, विश्वास नहीं कर पा रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। लेकिन यह बात कहीं न कहीं मेरे दिमाग में घर कर गयी थी। और तब तक इसने मुझे तंग करना नहीं छोड़ा जब तक मैं The Hidden life of trees by Peter Wohleben पुस्तक तक न पहुंच गया। इस पुस्तक को पढने के बाद मेरा पेड़ पौधों को देखने का नजरिया ही बदल गया। मेरा और विशाल (साथी वन रक्षक) का भूभू जाने का प्लान कबसे सफल नहीं हो पर रहा था। ऐसे में मेहमानों का साथ पाकर दोनों का भूभू जोत जाने का प्लान रातों रात बन गया।

18 जून 2017: सुबह जल्दी उठकर हमने अपने लिए परांठे पैक कर लिए और सफर के लिए जरूरी सामान बांधकर लगभग 9 बजे सफर की शुरुआत की। हमारा सिल्ह्बुधानी गाँव तक का 4 KM का सफर कच्चे रोड से ही गुजरा। सिल्हबुधानी नाम दो गांवों को मिलकर बना है, जिसमें सिल्ह और बुधान दोनों अलग-2 गाँव हैं। जो भूभू जोत के बिलकुल चरणों में बसे हैं। रियासत काल से ही इस गाँव का उलेख इतिहास की पुरानी किताबों में बहुत मिलता है।

शुरूआती 4 KM के सफर के दौरान कुंगड गाँव के पास से लिया छायाचित्र 

इस गाँव से आगे का सफर एक चौड़े सर्पीले रास्ते से गुजरता हुआ दोप्ती नामक स्थान पर पहुंचा। सफर के दौरान भुभु नाले के दाईं ओर वांगन और भुभु नाल DPF (डीमार्केटेड प्रोटेक्टेड फारेस्ट) के चौड़ी पत्तियों और रई तोस के घने जंगल मन को रोमांच से भर देते हैं। घने होने के साथ-2 यहाँ पानी की मौजूदगी के कारण यह जंगल बहुत से जंगली जीव जन्तुओं के लिए अच्छा घर भी है। इन जंगलों में हिमालयन मोनाल, कोक्लास फिजेंट, बार्किंग डिअर, हिमालयन गोरल, काला भालू, तेंदुआ, येलो थ्रोटेड मार्टिन, सिवेट कैट और लेपर्ड कैट आदि जंगली जीव जन्तु पाए जाते हैं। इन्ही जंगलों के बीच एक कठोर पथरीली चोटी दिखाई पडती है। जिसे महाजन टिब्बा कहा जाता है। किसी भी एडवेंचर प्रेमी के मन में इसे एक बार चढ़कर फतेह करने का मन जरुर करता है। दोप्ती तक रास्ता सीधा-२ ही जाता है। जिसके बाद इसमें धीरे-२ चढाई आने लगती है। और एक पड़ाव ऐसा आता है जब बिलकुल खड़ी चढाई का सामना करना पड़ता है।

भुभु नाला 

बादलों के बीच से निकलती किरणें घने जंगल की सुन्दरता पर चार चाँद लगाते हुए 

महाजनी टिब्बा  (सर्दियों के समय का फोटो)

दोप्ती वह जगह है जहाँ प्रस्तावित भूभू जोत टनल बनकर निकलेगी। इसके बनने से कुल्लू से जोगिंदर नगर की दूरी लगभग 59 KM घट जाएगी लेकिन यह प्रोजेक्ट राजनीती की मार झेलता रहा है और अभी भी कामयाब नहीं हो पाया है।

चढाई चढ़ते हुए कई फूलदार पौधे हमें देखने को मिले, जिसमें Roscoea spp, Eriocapitella rivularis, arisaema spp, मुख्य थे। चढाई के साथ घनी धुंध भी हमारे साथ आँख मिचोली खेल रही थी। कभी हटती तो कभी फिर आ जाती। इस चढाई के दौरान Menina को सामान के साथ काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। जिसे देखते हुए आधे रास्ते में मैंने उनके पिट्ठू को उठाना ठीक समझा। अकसर ऐसी खड़ी चढाई में दूरी का सही अनुमान लगाना मुश्किल होता है। ऐसा लगता है जैसे अभी कुछ देर में ही पहुंच जायेंगे, परन्तु यह मात्र भ्रम होता है। और जो व्यक्ति इस भ्रम में पड़ जाता है वह बार-बार हताश होकर बहुत थक्का हुआ महसूस करता है। शायद Menina के साथ भी यही हुआ था।

मैं Menina के पिट्ठू के साथ। वैसे आंखमिचोली करती धुंध आपको इसमें साफ़ नजर आ रही होगी 

Arisaema spp, Roscoea spp, Eriocapitella rivularis

धुंध में कहीं छिपा हुआ  भुभु गला 

सफर ज्यों-2 ऊँचाई की ओर चलता गया घाटी के सुंदर भू-दृश्य और भी निखर के नजर आते गये। पूरे  सफर में हमने 2 जगह विश्राम किया। दिन के लगभग 1 बजे थे जब हम भूभू गला पहुंचे। जिसकी ऊंचाई लगभग 2900 मीटर के करीब है,। हमारे विदेशी मेहमानों के चेहरे में कामयाबी की बड़ी मुस्कान थी जैसे उन्होंने कोई कीला जीत लिया हो।

ऊँचाई पर जाते हुए कुछ इस तरह भू-दृश्य निखर के आ रहे थे  

भुभु गले में पहुंचने की ख़ुशी सबके चेहरे में साफ़ नजर आ रही है विशेषकर विदेशी मेहमानों के 

इतिहास की बात करें तो भभु जोत रियासत काल से ही कांगड़ा जाने का सबसे छोटा रास्ता हुआ करता था। जो सबसे जल्दी कांगड़ा पहुंचाता था। लेकिन यह रास्ता सर्दियों में भारी बर्फ के कारण बंद हो जाता था और मार्च तक बंद ही रहता था। इस दौरान कुल्लू से जुड़ने का एक मात्र साधन दुल्ची जोत रहता था। जो पूरी साल खुला रहता था ।

पंजाब गज़ेटियर, मण्डी स्टेट (1920)

मैं और विशाल केवल यहीं तक की सोच कर आये थे। हमारा कुल्लू जाने का कोई प्लान नहीं था। इसलिए हमने मेहमानों से विदाई ली और भूभू गले से थोडा उपर की ओर जाकर कोई अच्छी से जगह पर खाना खाना उचित समझा। परन्तु वहां उपर से देखने पर कुल्लू की लग घाटी के गाँव इतने नजदीक दिख रहे थे कि मैं खुद को कुल्लू की ओर खिंचा जाने से रोक न पाया। मेरे कुल्लू से लगाव की वजह वहां बिताया लम्बा समय है। मेरी बचपन से लेकर पूरी पढाई कुल्लू में ही हुयी है। और वन विभाग में आने से पहले तक मैं कुल्लू ही रहता था। इसलिए कुल्लू मेरे लिए एक दूसरा घर जैसा है।

मैं, विशाल और Mate (डेनमार्क से )

खाना खाते हुए भी मेरे दिमाग में केवल कुल्लू ही चल रहा था। ज्यादा वक्त बर्बाद न करते हुए हम दोनों खरसु के जंगलों से होकर नीचे उतरे। जैसे भूभू जोत पहुंचने में खड़ी चढाई का सामना करना पड़ता है। वैसे ही जोत की दूसरी ओर सीधी उतराई से गुजरना पड़ता है। हम दोनों काफी गति से नीचे उतर रहे थे कि रास्ते में फिर हमारे कल के मेहमानों से मिलना हुआ। जिससे हमारी गति धीमी होकर उनकी गति सी हो गयी। और तभी सुबह से अठखेली करते बादल भी बरस पड़े। मानों कुल्लू में हमारे आने का स्वागत कर रहे हो। यह देखते हुए आस पास के 2,3 घने पेड़ों तले तब तक आराम किया गया जब तक बारिश थम न गयी। यह पूरा सफर रई तोस के जंगलों से होता हुआ चौड़ी पत्तियों के जंगल तक ले जाता है। आखिरकार हम लगभग 4.30 बजे के करीब कढ़ोन नामक जगह पर कुल्लू को जाती सड़क तक पहुंचे। इधर उधर बस का पता करने पर जानकारी मिली कि अंतिम बस जो 4 बजे जाती थी, वह हमसे छूट गयी है। और अब लिफ्ट लगभग 5 KM के सफर के बाद ही मिल पायेगी। चलते-२ हमें रुजग में पांचाली नारयण मन्दिर के दर्शन हुए। और अंततः शालंग कालंग से कुल्लू जा रही टाटा सूमो गाड़ी ने हमें लिफ्ट देकर कुल्लू के ढालपुर मैदान तक पहुंचाया।
कुल्लू की ओर के घने वन 

मंदिर पांचाली  नारायण  


43 comments:

  1. बहुत ही सुंदर वर्णन। ऐसे ही लिखते रहिए।

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    1. ❤️बहुत-2 शुक्रिया आपका, आगे की यात्राएं भी लिखी जाएंगी। ❤️🙏🏻

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  2. Suppbbb as usual 😊😊👌👌👌👌👌👌

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  3. Replies
    1. ❤️शुक्रिया आपके स्नेह के लिए❤️🙏🏻🙏🏻

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  4. Excellent adventure with job

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  5. बहुत बह5त मुबारक आपको इस बेहतरीन लेख के लिए

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    1. बहुत-2 शुक्रिया इस काबिल समझने के लिए ❤️❤️🙏🏻🙏🏻

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  6. बहुत सुंदर। ऐसा लग रहा है जैसे हम भी भुभु जोत घूम आयें हो ।

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    1. धन्यवाद आपके स्नेह के लिए ❤️🙏🏻

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  7. Wow.... Well written.. l have travelled this route the other way.. that is from Kullu to jogindernagar in September 1990..
    After reading your blog, I will surely write my blog and share it with u.

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    1. आभार आपका, इंतज़ार रहेगा आपकी स्टोरी का, 1990 के समय की भुभु का दीदार करने का मौका मिलेगा हमें

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  8. Good jogi keep it up
    Nice article

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    1. ❤️ धन्यवाद जी ❤️ 🙏🏻🙏🏻

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  9. शाबाश मेरे भाई 👌👌👌👍

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  10. बहुत बढ़िया भाई जी।

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  11. Magnificent views.... Poured out with wonderful writing����Keep up the great work����

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    1. हां हां, धज्जियां तो whats app में उड़ेगी 🤣🤣
      ❤️Thanks❤️

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  12. Beautiful brother keep it up and keep exploring

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  13. Mesmerizing view.. awesome way to express journey
    Keep it up bro.. hope to see next blog soon ����

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  14. बहुत शानदार भाई जी , बहुत अच्छा लगा आपसे इतना कुछ जानकर । मेरे कुल देवता हुरंग नारायण है और मैं लग घाटी का निवासी हूँ । आपका इतनी जानकारी के लिए बहुत धन्यवाद ।

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    1. धन्यवाद भाई जी,, जय हुरंग नारयण..

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  15. बहुत ही बेहतरीन तरीके से बयान किया है भाई। 🙏🙏🙏🙏

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  16. बहुत ही बेहतरीन तरीके से बयान किया है भाई। ��������

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  17. मज़ा आ गया पढ़ कर जनाब

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  18. kya baat hai bhai...

    it is when "fashion meets passion"

    this article is full of knowledge...

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  19. Replies
    1. शुक्रिया भाई जान 🙏🏻🙏🏻

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