चेलार सर
सर, सौर अर्थात सरोवर जो प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं और पहाड़ों में उपस्थित रहते हैं। धार्मिक दृष्टि से इनका बहुत ही ज्यादा महत्व है। इनके पानी को पवित्र माना जाता है। भादो बीस को इनके पानी से स्नान करना सदियों से चली आ रही परंपरा है। माना जाता है कि यहां जाकर सच्चे दिल से जो भी मनोकामना की जाए वह अवश्य पूरी होती है।
बरोट से झरवाड़ के लिए रोड मैप और झरवाड़ से चेलार सर तक का पैदल रास्ता
चेलार सर चुहार घाटी के गाँव बड़ी झरवाड़ के पहाड़ों की चोटियों पर स्थित सरों में से एक है। बड़ी झरवाड़, मेरा जन्म स्थान है जो कि बरोट से 5 KM की दूरी पर स्थित है। मेरा पढ़ाई के कारण बहुत ही कम समय के लिए अपने गाँव आना जाना होता है। पिता के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत होने के कारण बचपन से ही मेरी पढ़ाई घर से बाहर हुई है। बचपन में ग्रीष्म कालीन स्कूलों में अक्सर जुलाई अगस्त में छुट्टियाँ पड़ती थी और शायद अब भी छुट्टियों का यही पैटर्न होगा। जब भी इन छुटियों में घर आना हुआ तो घर के आंगन से निहारने पर चेलार सर वाला पहाड़ बहुत ही आकर्षित करता था।
इस बार Covid-19 और लोकडाउन के चलते एक लंंबा समय गांव में बिताने को मिल गया था। मैंने गांव आने से पहले ही चेलार सर जाने का मन बना लिया था। लेकिन कोई भी मन का सोचा कभी आसानी से और उसी रूप में प्राप्त हो पाता है क्या?? मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब मैं घर आयी तो घर में गोभी लगाने का काम जोरों शोरों से चला था। इस कारण मैं खेती के कामों में बहुत व्यस्त चली रही। फिर कभी बीच में मौका मिला भी तो कोई साथी न मिला। पर घर में मेरे छोटे चचेरे भाइयों द्वारा पूरा दिन खूब मनोरंजन हो जाया करता था।
आज भी हम रोज की तरह दिन के समय खाना खाने के बाद धूप सेंकने बैठे थे। और बच्चा पार्टी ने वैसे ही चहल पहल मचा रखी थी। कि बातों-२ में ही मेरा और प्रोमिला चाची (जिनका घर पड़ोस में ही है) दोनों का पहाड़ों को निहारते हुए प्लान बन ही गया। लेकिन हर चीज़ प्लान के अनुसार ही हो ऐसा सम्भव नहीं हो पाता। इसलिए हमारे अगले दिन भी काम की अड़चन भारी रही। जब से आई थी तब से लगातार काम ही कर रही थी। चिड़चिड़ापन धीरे-2 मुझपर भारी होता जा रहा था। जाने का प्लान बनकर भी अधूरा रहने से मन काफी निराश हो गया था। रात को इसी निराश मन से यह पक्का ठान लिया था कि कल मैं किसी भी स्थिति में अवश्य जाकर रहूंगी।
देर रात तक अगले दिन जाने की उत्सुकता ने सोने नहीं दिया और सुबह भी जल्दी ही नींद चली गयी। ज्यों ही हल्की-2 धूप की किरणों ने बाहर दस्तक दी मेरी नजरें पास में ही प्रोमिला चाची के घर पर पड़ी तो पाया कि रात को संज्ञा बुआ और अन्य मेहमान का भी आगमन हुआ है।
संज्ञा बुआ पोस्ट आफिस में कार्यरत हैं। एसेंशियल सर्काविस में होने के कारण उन्हें लॉक डाउन के दौरान भी छुट्टियाँ नहीं थी। हम सभी भाई बहनों के बुआ के साथ बचपन से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रहें हैं।
जब मैंने बुआ को घर पर पाया तो यह देखकर मेरी कल की निराशा ने कैसे एक खुशी का रूप ले लिया था मुझे स्वयं को आभास न हुआ। कहते हैं कि जो होता है वह अच्छे के लिए होता है। यह बात मुझे आज सिद्ध होती दिख रही थी।मुझे लग रहा था कि अब हम जाने वाले 2 से बढ़कर 3 सदस्य हो गए हैं। परन्तु पहाड़ों में अलग ही जादू होता है, जिसने मेहमानों (पाल चाचू और उनकी बेटी) को भी खुद की ओर आकर्षित करने में कोई कसर न छोड़ी। इससे हम जाने वालों की संख्या बढ़कर 3 से 5 हो गयी, बाद में मां के शामिल होने से ये 6 तक पहुंच गई।
चेलार-सर की ओर जाती घुमक्कड़ मण्डली
हमने जल्दी से अपने खाने पीने का सामान पैक किया और चेलार सर की ओर निकल लिए। ऊपर तक का पूरा रास्ता कहीं-2 चौड़ा तो कहीं सँकरा है। जामु-रा-गोठ तक पूरा सफर चढ़ाई चढ़ने में ही गुजरता है। गांव परिसर से बाहर जाते ही "जखलु" नामक जगह से रई तोस के जंगल शुरू हो जाते हैं। हम इन्हीं जंगलों से होते टेड़े मेढे रास्ते से गुजरे। यह पूरा रास्ता रंग बिरंगे फल और फूलों से आच्छादित हरे भरे कालीन से होकर गुजरा। जिनमें मुख्य थे:- Aquilegia pubiflora, Gnaphalium affine, Prunella vulgaris, Achillea millefolium(Yarrow), Trifolium repens, Roscoea spp., Anemone rivularis, Potentilla astrosanguinea(Himalyan cinquefoil) फलों में सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाले लाल रंग के फल थे जिन्हें जंगली स्ट्रॉबेरी (Fragaria vesca) कहते हैं। पूरे सफर में इस लजीज बैरी ने हमारी उर्जा को कभी खत्म नहीं होने दिया।
विविध प्रकार के फूल जो हमें उपर जाते हुए मिले
नकडे़ल के पास आराम करती हमारी मण्डली
भुमले (Fragaria vesca) का आनंद उठाते हुए
जंगली स्ट्राबेरी (Fragaria vesca)
हम लगभग 10 बजे तक नकडे़ल नाले के पास पहुंचे जहां हमें एक ड्वार मिला जिसे ढुआनी-रा-ड्वार कहा जाता है। अर्थात "समान ढोने वालों का ड्वार"। ढुआनी यानी कुली जो समान को ढोते हैं। डवार एक छोटी सी गुफा होती है जिसे भारी बारिश से बचने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यहां हमने थोड़ी देर आराम किया। अब तक के सफर में घने जंगल की छाया ने कड़ी धूप से हमारा बचाव किया। परन्तु जल्द ही बादलों ने सूरज मामा को घेर लिया और धुंध हवाओं संग झूलती नजर आयी। जैसे-2 हम जामु रा गोठ की चढ़ाई चढ़ रहे थे वादियों का नज़ारा बहुत खुलकर नजर आ रहा था। ये नजारे कठिन चढ़ाई होने के बावजूद मन को और भी उत्साह से भर रहे थे। जामु-रा-गोठ पहुंचने पर पूरी घाटी का नज़ारा देखते ही मन को मोह लेता है। यहां से मेरे गाँव का बहुत सुंदर नजारा देखने को मिलता है।
घाटी का नजारा गोठ से
जामु-रा-गोठ से मेरे गाँव बड़ी झरवाड़ का सुंदर दृश्य
गोठ यानी ऐसी जगह जो ऊंचाई पर हो और थोड़ी मैदानी भी हो; यहां भेड़ पालक आते जाते अपनी बकरियां बिठाया करते हैं। "जामु-रा-गोठ" का अभिप्राय ऐसी ऊंची जगह से है जहाँ जंगली जामुन पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हो। जैसा कि नाम बताता है यहां जंगली जामुन (Prunus cornuta) के पेड़ कभी बहुतायत में थे। ये पेड़ अब भी काफी मात्रा में यहां है। इनके घटने का एक मुख्य कारण स्थानीय बच्चों द्वारा जामुन निकालने के लिए इन्हें जड़ से काटना है। सभी तो नहीं, पर कुछ एक बच्चे इसमें जरूर शामिल रहते हैं। यहां पहुंचने पर जामुु के कच्चे फलों को देखकर उनका वह जमुनी- काला रंग स्मृतिपटल में याद आ रहा था इससे मुँह में पानी आना तो स्वाभाविक था। जंगली जामुन के फल अगस्त में पककर पूरी तरह तैयार हो जाते हैं। इसलिए हम यह सोचकर आगे निकल गए कि फिर कभी इनका लुत्फ उठाने जरूर आएंगे।
इससे आगे के सफर में खरसु और रखाल के पेड़ों ने हमारा स्वागत किया। इन जंगलों में बहुत सी फंजाई और कवक भी लगे हुए थे। जिनमें Lycoperdon pyriforme एक खाने योग्य मशरूम था। यह अधिकतर रई के पेड़ों के नीचे मिलते हैं। जैसे-2 हम आगे बढ़े खरसु के पेड़ों की संख्या में इजाफा होता गया। इन पेड़ों में लगी Bracket Fungus देखकर सबका ध्यान इनकी ओर खींचा चला जाता है। हम जैसे-2 चेलार सर के नजदीक पहुंचते जा रहे थे धुंध कभी घिरती तो कभी छंटति जा रही थी। आखिरकार चारों और घने पेड़ो से घिरे घुमावदार रास्तों से होकर हम चेलारसर पहुंचते हैं।
Cynoglossum furcatum के फूल
चेलार-सर के साथ ही देव पशाकोट का छोटा सा मंदिर है। जहां स्थानीय लोगों द्वारा भादो बीस को पूजा की जाती है और इसके पवित्र पानी में स्नान किया जाता है। यहां की मान्यता के अनुसार महामारी के दौरान यहां किसी भी औरत का आना वर्जित रहता है। यहां पहुंचकर हमने सबसे पहले मन्दिर में माथा टेका। जब नजरें झील पर पड़ी की दयनीय स्थिति को देखकर मन बहुत चिंतित और उदास हो गया। इस छोटी सी झील में कभी खूब पानी हुआ करता था और यह बहुत शुद्ध रूप में हुआ करता था। लेकिन आज की स्थिति इसके विपरीत है। ऐसा लगता है मानों यह झील अपनी अंतिम सांसें गिन रही हो। वर्तमान में इस झील को सफाई की बहुत जरूरत है। हवा से पत्तों का टूटकर इस झील में पड़ना और फिर सड़ जाने से इसमें कीचड़ और दलदल तैयार हो गया है। जिसके लिए हम स्थानीय को जल्द कोई ठोस कदम उठाना बहुत जरूरी हो गया है। जल्द इसपर हमने कुछ कदम न उठाए तो यह झील हमेशा के लिए सूख सकती है। इस कार्य के लिए वन विभाग भी इसमें मदद कर सकता है। वाटर पोंड और फार्म पोंड के नाम पर कई बजट वन विभाग द्वारा खर्चा जाता है। लेकिन शायद ही इस ओर बरोट क्षेत्र में कार्यरत फील्ड अफसर का ध्यान गया है। और न ही स्वयं हम स्थानीय लोगों ने इस ओर ध्यान देने की कोशिश की है।
जब भी चेलार सर आना होता है कुछ चीज़ों का मिलना बिल्कुल निश्चित रहता है। जैसे कि गद्दी जिन्हें हम पुहाल कहते हैं और सांप। आज भी हमें यहां गद्दियों की बकरियां इस जगह देखने को मिली। परन्तु इस बार सांप के दर्शन नहीं हो पाए। इसका मिलना शुभ भी माना जाता है क्योंकि सांप और देवता पशाकोट का बहुत गहरा संबंध माना जाता है। लोक मान्यताओं में देवता की सांप से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित है। सर के साथ लगती जगह पर हमने अपने दोपहर के भोजन का आनंद लिया और फिर एक खास तरह की जंगली सब्जी एकत्रित की जिसका नाम Arisaema spp. जिसे हिमालयन कोबरा लिल्ली कहा जाता है। और हम इसे चमु के नाम से जानते हैं। चुहार घाटी में इन चमु के पत्तों और तनों से एक बहुत ही स्वादिष्ट पहाड़ी पकवान बनाया जाता है जिसे चमिडू कहते हैं। इसके अलावा इससे साग भी बनाई जाती है। Arisaema को कोबरा लिल्ली कहने का कारण इसकी कोबरा की तरह आकृति है। चेलार सर के आसपास की जगहों में यह भरपूर मात्रा में पाया जाता है।
कोबरा लिल्ली (Arisaema spp) जिसे स्थानीय लोग चम्मु कहते हैं
चम्मु निकालने के बाद वापिस घर की ओर जाते हुए
अब वक्त घर वापसी का हो चला था। पर पहाड़ी जहां भी हो वहां नाटी न डाले यह बात असंभव सी लगती है। परन्तु जब भी पहाड़ों पर हो और खासकर ऐसी दैविक शक्ति वाली जगह, तो शांति का विशेष ध्यान रखा जाता है। क्योंकि हमारी मान्यताओं के अनुसार इन्ही पहाड़ों पर जोगणियों (शक्ति) का वास होता है। और उनकी शान्ति में जो भी भंग डालता है उसे इन शक्तियों के क्रोध को झेलना पड़ता है। इसलिए हमने यहाँ नाटी डालना उचित न समझा। पहाड़ से काफी नीचे जामु-रे-गोठ के आस-पास आकर हमने थोड़ी बहुत मौज मस्ती की। अभी कुछ ही नीचे उतरे थे कि थोड़ी ही देर में बारिश भी शुरू हो गयी ऐसा लगा मानों हमारे एहतियात बरतने के बावजूद पहाड़ों में रहने वाली शक्ति हमसे कुछ एतराज जाहिर कह रही हो। आखिरकार भारी बारिश से लथपथ हम इधर उधर गिरते पड़ते घर पहुंच ही गए। लेकिन इस बारिश ने मन में यह प्रश्न जरुर खड़ा किया कि क्या ऐसी जगह पर जाकर हमारा नाच गाना करना उचित रहता है ?? क्यूंकि आजकल अधिकतर युवा जब भी पहाड़ों में जाते हैं, तो इन शक्तियों की मुख्य जगहों पर जाकर शराब पीना, कूड़ा कचरा फैलाना और नाच गाना करते हैं।
घर वापसी की छोटी सी विडियो
हमे भी कल्पनाओं में घूमा लिया
ReplyDeletenice bachpan me bhut gye hm bhi yaha. but by devdar treack tha hmara..
ReplyDeleteसच में बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति की गर्जना आपने हमें भी अपना वो समय याद आ गया जब हमने अपने जीवन के बहुत ही शानदार पल आप सब के साथ गुजारे.
ReplyDeleteबहुत उम्दा!!! उम्मीद करते हैं जल्द यहाँ आने का मौका मिलेगा!!!
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteGreat di ��
ReplyDeleteBeautifully explained ...
Gorgeous pictures ✨❣️
Keep it up ��