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Saturday, July 25, 2020

चेलार-सर यात्रा : बड़ी झरवाड़ (चुहार घाटी) से चेलार-सर की सैर

चेलार सर 
सर, सौर अर्थात सरोवर जो प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं और पहाड़ों में उपस्थित रहते हैं। धार्मिक दृष्टि से इनका बहुत ही ज्यादा महत्व है। इनके पानी को पवित्र माना जाता है। भादो बीस को इनके पानी से स्नान करना सदियों से चली आ रही परंपरा है। माना जाता है कि यहां जाकर सच्चे दिल से जो भी मनोकामना की जाए वह अवश्य पूरी होती है। 

बरोट से झरवाड़ के लिए रोड मैप और झरवाड़ से चेलार सर तक का पैदल रास्ता 

चेलार सर चुहार घाटी के गाँव बड़ी झरवाड़ के पहाड़ों की चोटियों पर स्थित सरों में से एक है। बड़ी झरवाड़, मेरा जन्म स्थान है जो कि बरोट से 5 KM की दूरी पर स्थित है। मेरा पढ़ाई के कारण बहुत ही कम समय के लिए अपने गाँव आना जाना होता है। पिता के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत होने के कारण बचपन से ही मेरी पढ़ाई घर से बाहर हुई है। बचपन में ग्रीष्म कालीन स्कूलों में अक्सर जुलाई अगस्त में छुट्टियाँ  पड़ती थी और शायद अब भी छुट्टियों का यही पैटर्न होगा। जब भी इन छुटियों में घर आना हुआ तो घर के आंगन से निहारने पर चेलार सर वाला पहाड़ बहुत ही आकर्षित करता था। 

इस बार Covid-19 और लोकडाउन के चलते एक लंंबा समय गांव में बिताने को मिल गया था। मैंने गांव आने से पहले ही चेलार सर जाने का मन बना लिया था। लेकिन कोई भी मन का सोचा कभी आसानी से और उसी रूप में प्राप्त हो पाता है क्या?? मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब मैं घर आयी तो घर में गोभी लगाने का काम जोरों शोरों से चला था। इस कारण मैं खेती के कामों में बहुत व्यस्त चली रही। फिर कभी बीच में मौका मिला भी तो कोई साथी न मिला। पर घर में मेरे छोटे चचेरे भाइयों द्वारा पूरा दिन खूब मनोरंजन हो जाया करता था।
आंगन से उस पहाड़ का नजारा जहां झील उपस्थित है
आज भी हम रोज की तरह दिन के समय खाना खाने के बाद धूप सेंकने बैठे थे। और बच्चा पार्टी ने वैसे ही चहल पहल मचा रखी थी। कि बातों-२ में ही मेरा और प्रोमिला चाची (जिनका घर पड़ोस में ही है) दोनों का पहाड़ों को निहारते हुए प्लान बन ही गया। लेकिन हर चीज़ प्लान के अनुसार ही हो ऐसा सम्भव नहीं हो पाता। इसलिए हमारे अगले दिन भी काम की अड़चन भारी रही। जब से आई थी तब से लगातार काम ही कर रही थी। चिड़चिड़ापन धीरे-2 मुझपर भारी होता जा रहा था। जाने का प्लान बनकर भी अधूरा रहने से मन काफी निराश हो गया था। रात को इसी निराश मन से यह पक्का ठान लिया था कि कल मैं किसी भी स्थिति में अवश्य जाकर रहूंगी।  

देर रात तक अगले दिन जाने की उत्सुकता ने सोने नहीं दिया और सुबह भी जल्दी ही नींद चली गयी। ज्यों ही हल्की-2 धूप की किरणों ने बाहर दस्तक दी मेरी नजरें पास में ही प्रोमिला चाची के घर पर पड़ी तो पाया कि रात को संज्ञा बुआ और अन्य मेहमान का भी आगमन हुआ है। 
संज्ञा बुआ पोस्ट आफिस में कार्यरत हैं। एसेंशियल सर्काविस में होने के कारण उन्हें लॉक डाउन के दौरान भी  छुट्टियाँ नहीं थी। हम सभी भाई बहनों के बुआ के साथ बचपन से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रहें हैं। 
जब मैंने बुआ को घर पर पाया तो यह देखकर मेरी कल की निराशा ने कैसे एक खुशी का रूप ले लिया था मुझे स्वयं को आभास न हुआ। कहते हैं कि जो होता है वह अच्छे के लिए होता है। यह बात मुझे आज सिद्ध होती दिख रही थी।मुझे लग रहा था कि अब हम जाने वाले 2 से बढ़कर 3 सदस्य हो गए हैं। परन्तु पहाड़ों में अलग ही जादू होता है, जिसने मेहमानों (पाल चाचू और उनकी बेटी) को भी खुद की ओर आकर्षित करने में कोई कसर न छोड़ी। इससे हम जाने वालों की संख्या बढ़कर 3 से 5 हो गयी, बाद में मां के शामिल होने से ये 6 तक पहुंच गई। 
चेलार-सर की ओर जाती घुमक्कड़ मण्डली 
हमने जल्दी से अपने खाने पीने का सामान पैक किया और चेलार सर की ओर निकल लिए। ऊपर तक का पूरा रास्ता कहीं-2 चौड़ा तो कहीं सँकरा है। जामु-रा-गोठ तक पूरा सफर चढ़ाई चढ़ने में ही गुजरता है। गांव परिसर से बाहर जाते ही "जखलु" नामक जगह से रई तोस के जंगल शुरू हो जाते हैं। हम इन्हीं जंगलों से होते टेड़े मेढे रास्ते से गुजरे। यह पूरा रास्ता रंग बिरंगे फल और फूलों से आच्छादित हरे भरे कालीन से होकर गुजरा। जिनमें मुख्य थे:- Aquilegia pubiflora, Gnaphalium affine, Prunella vulgaris, Achillea millefolium(Yarrow), Trifolium repens, Roscoea spp., Anemone rivularis, Potentilla astrosanguinea(Himalyan cinquefoil) फलों में सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाले लाल रंग के फल थे जिन्हें जंगली स्ट्रॉबेरी (Fragaria vesca) कहते हैं। पूरे सफर में इस लजीज बैरी ने हमारी उर्जा को कभी खत्म नहीं होने दिया। 
विविध प्रकार के फूल जो हमें उपर जाते हुए मिले 
नकडे़ल के पास आराम करती हमारी मण्डली 
भुमले (Fragaria vesca) का आनंद उठाते हुए 

जंगली स्ट्राबेरी (Fragaria vesca)
हम लगभग 10 बजे तक नकडे़ल नाले के पास पहुंचे जहां हमें एक ड्वार मिला जिसे ढुआनी-रा-ड्वार कहा जाता है। अर्थात "समान ढोने वालों का ड्वार"। ढुआनी यानी कुली जो समान को ढोते हैं। डवार एक छोटी सी गुफा होती है जिसे भारी बारिश से बचने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यहां हमने थोड़ी देर आराम किया। अब तक के सफर में घने जंगल की छाया ने कड़ी धूप से हमारा बचाव किया। परन्तु जल्द ही बादलों ने सूरज मामा को घेर लिया और धुंध हवाओं संग झूलती नजर आयी। जैसे-2 हम जामु रा गोठ की चढ़ाई चढ़ रहे थे वादियों का नज़ारा बहुत खुलकर नजर आ रहा था। ये नजारे कठिन चढ़ाई होने के बावजूद मन को और भी उत्साह से भर रहे थे। जामु-रा-गोठ पहुंचने पर पूरी घाटी का नज़ारा देखते ही मन को मोह लेता है। यहां से मेरे गाँव का बहुत सुंदर नजारा देखने को मिलता है।
घाटी का नजारा गोठ से 

जामु-रा-गोठ से मेरे गाँव बड़ी झरवाड़ का सुंदर  दृश्य 

मैं (गरजना ठाकुर) जामु-रा-गोठ से  
 गोठ यानी ऐसी जगह जो ऊंचाई पर हो और थोड़ी मैदानी भी हो; यहां भेड़ पालक आते जाते अपनी बकरियां बिठाया करते हैं। "जामु-रा-गोठ" का अभिप्राय ऐसी ऊंची जगह से है जहाँ जंगली जामुन पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हो। जैसा कि नाम बताता है यहां जंगली जामुन (Prunus cornuta) के पेड़ कभी बहुतायत में थे। ये पेड़ अब भी काफी मात्रा में यहां है। इनके घटने का एक मुख्य कारण स्थानीय बच्चों द्वारा जामुन निकालने के लिए इन्हें जड़ से काटना है। सभी तो नहीं, पर कुछ एक बच्चे इसमें जरूर शामिल रहते हैं। यहां पहुंचने पर जामुु के कच्चे फलों को देखकर उनका वह जमुनी- काला रंग स्मृतिपटल में याद आ रहा था इससे मुँह में पानी आना तो स्वाभाविक था। जंगली जामुन के फल अगस्त में पककर पूरी तरह तैयार हो जाते हैं। इसलिए हम यह सोचकर आगे निकल गए कि फिर कभी इनका लुत्फ उठाने जरूर आएंगे। 


इससे आगे के सफर में खरसु और रखाल के पेड़ों ने हमारा स्वागत किया। इन जंगलों में बहुत सी फंजाई और कवक भी लगे हुए थे।  जिनमें Lycoperdon pyriforme एक खाने योग्य मशरूम था। यह अधिकतर रई के पेड़ों के नीचे मिलते हैं। जैसे-2 हम आगे बढ़े खरसु के पेड़ों की संख्या में इजाफा होता गया। इन पेड़ों में लगी Bracket Fungus देखकर सबका ध्यान इनकी ओर खींचा चला जाता है। हम जैसे-2 चेलार सर के नजदीक पहुंचते जा रहे थे धुंध कभी घिरती तो कभी छंटति जा रही थी। आखिरकार चारों और घने पेड़ो से घिरे घुमावदार रास्तों से होकर हम चेलारसर पहुंचते हैं।
घुमावदार रास्तों से गुजरते मुसाफिर 

चेलार सर के साथ लगते हरे-भरे चारागाह 

Cynoglossum furcatum के फूल

देवता पशाकोट के मन्दिर के साथ फोटो खिंचवाते संज्ञा बुआ 

चेलार-सर के साथ ही देव पशाकोट का छोटा सा मंदिर है। जहां स्थानीय लोगों द्वारा भादो बीस को पूजा की जाती है और इसके पवित्र पानी में स्नान किया जाता है। यहां की मान्यता के अनुसार महामारी के दौरान यहां किसी भी औरत का आना वर्जित रहता है। यहां पहुंचकर हमने सबसे पहले मन्दिर में माथा टेका। जब नजरें झील पर पड़ी की दयनीय स्थिति को देखकर मन बहुत चिंतित और उदास हो गया। इस छोटी सी झील में कभी खूब पानी हुआ करता था और यह बहुत शुद्ध रूप में हुआ करता था। लेकिन आज की स्थिति इसके विपरीत है। ऐसा लगता है मानों यह झील अपनी अंतिम सांसें गिन रही हो। वर्तमान में इस झील को सफाई की बहुत जरूरत है। हवा से पत्तों का टूटकर इस झील में पड़ना और फिर सड़ जाने से इसमें कीचड़ और दलदल तैयार हो गया है। जिसके लिए हम स्थानीय को जल्द कोई ठोस कदम उठाना बहुत जरूरी हो गया है। जल्द इसपर हमने कुछ कदम न उठाए तो यह झील हमेशा के लिए सूख सकती है। इस कार्य के लिए वन विभाग भी इसमें मदद कर सकता है। वाटर पोंड और फार्म पोंड के नाम पर कई बजट वन विभाग द्वारा खर्चा जाता है। लेकिन शायद ही इस ओर बरोट क्षेत्र में कार्यरत फील्ड अफसर का ध्यान गया है। और न ही स्वयं हम स्थानीय लोगों ने इस ओर ध्यान देने की कोशिश की है। 

चेलार-सर के पास बैठी बकरियां 
जब भी चेलार सर आना होता है कुछ चीज़ों का मिलना बिल्कुल निश्चित रहता है। जैसे कि गद्दी जिन्हें हम पुहाल कहते हैं और सांप। आज भी हमें यहां गद्दियों की बकरियां इस जगह देखने को मिली। परन्तु इस बार सांप के दर्शन नहीं हो पाए। इसका मिलना शुभ भी माना जाता है क्योंकि सांप और देवता पशाकोट का बहुत गहरा संबंध माना जाता है। लोक मान्यताओं में देवता की सांप से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित है। सर के साथ लगती जगह पर हमने अपने दोपहर के भोजन का आनंद लिया और फिर एक खास तरह की जंगली सब्जी एकत्रित की जिसका नाम Arisaema spp. जिसे हिमालयन कोबरा लिल्ली कहा जाता है। और हम इसे चमु के नाम से जानते हैं। चुहार घाटी में इन चमु के पत्तों और तनों से एक बहुत ही स्वादिष्ट पहाड़ी पकवान बनाया जाता है जिसे चमिडू कहते हैं। इसके अलावा इससे साग भी बनाई जाती है। Arisaema को कोबरा लिल्ली कहने का कारण इसकी कोबरा की तरह आकृति है। चेलार सर के आसपास की जगहों में यह भरपूर मात्रा में पाया जाता है।  
कोबरा लिल्ली (Arisaema spp) जिसे स्थानीय लोग चम्मु कहते हैं
चम्मु निकालने के बाद वापिस घर की ओर जाते हुए
अब वक्त घर वापसी का हो चला था। पर पहाड़ी जहां भी हो वहां नाटी न डाले यह बात असंभव सी लगती है। परन्तु जब भी पहाड़ों पर हो और खासकर ऐसी दैविक शक्ति वाली जगह, तो शांति का विशेष ध्यान रखा जाता है। क्योंकि हमारी मान्यताओं के अनुसार इन्ही पहाड़ों पर जोगणियों (शक्ति) का वास होता है। और उनकी शान्ति में जो भी भंग डालता है उसे इन शक्तियों के क्रोध को झेलना पड़ता है। इसलिए  हमने यहाँ नाटी डालना उचित न समझा। पहाड़ से काफी नीचे जामु-रे-गोठ के आस-पास आकर हमने थोड़ी बहुत मौज मस्ती की। अभी कुछ ही नीचे उतरे थे कि थोड़ी ही देर में बारिश भी शुरू हो गयी ऐसा लगा मानों हमारे एहतियात बरतने के बावजूद पहाड़ों में रहने वाली शक्ति हमसे कुछ एतराज जाहिर कह रही हो। आखिरकार भारी बारिश से लथपथ हम इधर उधर गिरते पड़ते घर पहुंच ही गए। लेकिन इस बारिश ने मन में यह प्रश्न जरुर खड़ा किया कि क्या ऐसी जगह पर जाकर हमारा नाच गाना करना उचित रहता है ?? क्यूंकि आजकल अधिकतर युवा जब भी पहाड़ों में जाते हैं, तो इन शक्तियों की मुख्य जगहों पर जाकर शराब पीना, कूड़ा कचरा फैलाना और नाच गाना करते हैं।

घर वापसी की छोटी सी विडियो 



Sunday, July 19, 2020

भुभु जोत यात्रा: चुहार घाटी (सिल्ह्बुधानी) से लग घाटी (कढ़ोन) की सैर

भुभु जोत और उसके साथ लगता महाजनी टिब्बा 

भुभु जोत धौलाधार पर्वत श्रृंखला से निकले द्वितयक अक्ष में पाया जाता है। यह द्वितयक अक्ष, मुख्य अक्ष  से छोटा भंगाल के लोहार्डी क्षेत्र के आस-पास से अलग होता है। मैं  वर्तमान में इसी अक्ष के साथ लगते क्षेत्र में वन रक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा हूँ। दिसम्बर 2016 में मैं वन विभाग हिमाचल प्रदेश में भर्ती हुआ था। भर्ती होने तक मुझे विभाग के बारे ज्यादा जानकारी नहीं थी। मुझे यह भी ज्ञात नहीं था कि जिस क्षेत्र को वन रक्षक को सम्भालना होता है वह बीट कहलाती है। और ऐसी कौन-2 सी बीटें मेरे क्षेत्र में हैं। जब पोस्टिंग लेटर हाथ लगा तो पता चला कि किसी हुरंग नामक बीट में जाना है। इस बारे अधिक छानबीन की गयी तो यह जानकारी मिली कि यह वही क्षेत्र है जहाँ देवता हुरंग नारायण का मन्दिर है और यहीं से भूभू जोत जाया जाता है। शायद मुझपर देवता की अपार कृपा थी जो देवता ने मुझे अपनी शरण में जगह दी।

चुहार घाटी कुल 4 इलाकों में बंटा है जिनके नाम कुट्गढ़, देवगढ़, हस्तपुर और अमरगढ़ है। मार्च 2016 को मैंने पहली बार घाटी के इलाका हस्तपुर में कदम रखा। बाकी इलाकों में मैं पहले भी जा चुका था। यहाँ मुझे तीन चीज़ों ने बहुत आकर्षित किया वह थे यहाँ का वन विश्राम गृह सिल्हबुधानी, देवता हुरंग नारयण मन्दिर और भुभु जोत। शुरू के २ मुख्य आकर्षण के बारे में मैं आपको जरुर बताना चाहूँगा तीसरे के बारे में आप इस पूरी यात्रा के दौरान जान ही लेंगे।

घटासनी से वन विश्राम गृह सिल्हबुधानी पहुंचने के लिए सड़क दिखाता मानचित्र 

वन विश्राम गृह सिल्ह्बुधानी (डाक बंगलो)

वन विश्राम गृह सिल्हबुधानी घटासनी से लगभग 25 KM की दूरी पर स्थित है। इसका इतिहास बहुत रोचक रहा है। इसे अंग्रेजों के समय डाक बंगलो कहा जाता था। अंग्रेजों के शासन के दौरान उन्नीसवीं सदी में जगह-2 ऐसे ही डाक बंगलो का निर्माण किया गया था। उस दौरान क्योंकि सड़क नहीं हुआ करती थी तो लम्बे सफर में आते जाते हुए इन्ही में विश्राम किया जाता था। आज भी कई स्थानीय बुजुर्ग इसे बंगलो के नाम से ही जानते हैं। इसकी पुरानी जगह कुंगडी नामक गाँव से कुछ ही दूरी पर थी। वर्ष 1905 के काँगड़ा भूकंप में यह डाक बंगलो पूरी तरह टूट गया। इसके पुनः निर्माण के लिए ग्रामण नामक गाँव से कुछ ही उपर एक नई जगह (वर्तमान जगह) चुनी गयी। और इस तरह लगभग वर्ष 1913 में यह नया डाक बंगलो बनकर तैयार हुआ। बंगलो के पुराने विजिटर रजिस्टर में आज भी वर्ष 1942 से आगे की एंट्री पढ़ी जा सकती है।

विश्राम गृह के विजिटर बुक में दर्ज सबसे पुरानी हाजिरी 

देवता हुरंग नारयण मन्दिर (हुरंग)

देवता हुरंग नारयण को चुहार घाटी का राजा कहा जाता है। इनका मुख्य मन्दिर हुरंग नामक गाँव पर स्थित है। यह वन विश्राम गृह सिल्हबुधानी से लगभग 10 KM की दुरी (वाया रोड) और घटासनी से 35 KM की दुरी पर स्थित है। आहलंग गाँव तक सड़क काफी अच्छी स्थिति में है। लेकिन आगे के 4 KM के सफर में ड्राईवर एक अलग ही स्तर का एडवेंचर अनुभव करता है। गाड़ी, गाड़ी न रहकर PK फिल्म की डांसिंग गाड़ी बन जाती है। हुरंग नारयण को पर्यावरण प्रेमी देऊ भी कहा जाता है। मन्दिर के आस पास का कुल 17-18 hactare का देवदार और बान का जंगल देवता ही नियंत्रित करते हैं। इसमें लगभग 7,8 hactare के बान के जंगल को देऊ बणी (देवता का निजी वन) के नाम से जाना जाता है। इसमें आना जाना और किसी भी तरह के लोहे के हथियार ले जाना वर्जित है। स्थानीय हुरंग निवासी भी इस जंगल में कभी-२ देवता के काम के लिए ही जाते हैं। मन्दिर परिवेश में सिवाय मदिरा के चमडा बीडी,सिगरेट और खेनी जैसा किसी भी तरह का नशीला पदार्थ ले जाना वर्जित किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि हिमालय की बहुत सी जड़ी बूटियों से बनी एक खास तरह की मदिरा जिसे स्थानीय भाषा में ध्रुब्ली और सूर कहते हैं, देवता को भी चढाई जाती है।

हुरंग नारयण मन्दिर और देवता के द्वारा नियंत्रित किया जाने वाले जंगल का गूगल मानचित्र 

कैसे यहाँ आकर जंगल की भागदौड़ में दो-ढाई महीने बीत गये कुछ पता न चला। शाम को सूर्यास्त के समय का भुभु का वो सुनहरा रूप मुझे हर दिन अपनी ओर आकर्षित करता था। मन यहीं शांत न होकर काल्पनिक दुनिया में उड़ने लगता था। दिन यूँ ही निकलते गये, पर काम के चलते हमारा कभी भी भुभु जोत जाने का इरादा सफल नहीं हो पाया।

इसी बीच 17 जून की शाम को वन विश्राम गृह सिल्ह्बुधानी में कुछ घुमक्कड़ों का आना हुआ। जिन्हें अगले दिन सुबह भुभु जोत होकर कुल्लू जाना था। हमारे तत्कालीन चौकीदार "रूपलाल" से उनकी कुछ बात हुयी परन्तु जनाब कुछ कारणों से उन्हें टेंट स्थापित करने की जगह देने से मुकर गये। मामला किसी तरह हम तक पहुंचा तो हमने पूरी बात सुनने के बाद उन्हें वहां टेंट स्थापित करने की इजाजत दे दी। वे कुल 5 लोगों का समूह थे। जिसमे 2 विदेशी (1 पुरुष,1 स्त्री) और 3 स्वदेशी थे। इन 3 स्वदेशियों में 2 पोर्टर-कम-गाइड-कम-कुक थे और एक उन्हीं 2 विदेशियों की तरह घुमक्कड़, जिनका नाम वरुणवीर पुंज था। यहाँ सेफ कैंपस में रहने की सेटिंग करवाने से वे सब बहुत खुश थे। इस बात को वरुणवीर भाई ने अंग्रेजी में विदेशियों को समझाया तो उन में से फीमेल घुमक्कड़ ने मुझे सबसे पहले गले लगाकर धन्यवाद दिया।

थैंक यू, यू हेल्प अस,

दे (वरुण एंड पोर्टर) टोल्ड मी.

एक हंसी के साथ मैं कुछ कह नहीं पाया।

मुझे उम्मीद नहीं थी कि जिस तरह की सख्ती उनके साथ चौकीदार ने की थी उसके बाद भी वे हमारा इतना अहसान रखेंगे।

जान पहचान में पता चला कि हमारे दोनों विदेशी मेहमानों का नाम Mate और Menina flor है। लम्बी चौड़ी कद काठी के वरुण भाई से शाम को काफी लम्बी चर्चा हुयी। जिनमें उनका अब तक का सफर और वन एवं पर्यावरण मुख्य विषय रहे। चर्चा के बीच उन्होंने मुझे एक रोचक बात बताई

“यू नो, यह सभी पेड़ पौधे हमारे समाज की तरह है जो एक दुसरे से अपनी रूट सिस्टम से बंधे हैं और जब हम किसी एक को भी नुक्सान पहुंचाते हैं तो ये जड़ों के जरिये एक दुसरे को संदेश पहुंचाते हैं”

यह बात सुनकर मुझे वरुण भाई कुछ ज्यादा ही काल्पनिक दुनिया के व्यक्ति लग रहे थे। मैं कम ज्ञान का मारा, विश्वास नहीं कर पा रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। लेकिन यह बात कहीं न कहीं मेरे दिमाग में घर कर गयी थी। और तब तक इसने मुझे तंग करना नहीं छोड़ा जब तक मैं The Hidden life of trees by Peter Wohleben पुस्तक तक न पहुंच गया। इस पुस्तक को पढने के बाद मेरा पेड़ पौधों को देखने का नजरिया ही बदल गया। मेरा और विशाल (साथी वन रक्षक) का भूभू जाने का प्लान कबसे सफल नहीं हो पर रहा था। ऐसे में मेहमानों का साथ पाकर दोनों का भूभू जोत जाने का प्लान रातों रात बन गया।

18 जून 2017: सुबह जल्दी उठकर हमने अपने लिए परांठे पैक कर लिए और सफर के लिए जरूरी सामान बांधकर लगभग 9 बजे सफर की शुरुआत की। हमारा सिल्ह्बुधानी गाँव तक का 4 KM का सफर कच्चे रोड से ही गुजरा। सिल्हबुधानी नाम दो गांवों को मिलकर बना है, जिसमें सिल्ह और बुधान दोनों अलग-2 गाँव हैं। जो भूभू जोत के बिलकुल चरणों में बसे हैं। रियासत काल से ही इस गाँव का उलेख इतिहास की पुरानी किताबों में बहुत मिलता है।

शुरूआती 4 KM के सफर के दौरान कुंगड गाँव के पास से लिया छायाचित्र 

इस गाँव से आगे का सफर एक चौड़े सर्पीले रास्ते से गुजरता हुआ दोप्ती नामक स्थान पर पहुंचा। सफर के दौरान भुभु नाले के दाईं ओर वांगन और भुभु नाल DPF (डीमार्केटेड प्रोटेक्टेड फारेस्ट) के चौड़ी पत्तियों और रई तोस के घने जंगल मन को रोमांच से भर देते हैं। घने होने के साथ-2 यहाँ पानी की मौजूदगी के कारण यह जंगल बहुत से जंगली जीव जन्तुओं के लिए अच्छा घर भी है। इन जंगलों में हिमालयन मोनाल, कोक्लास फिजेंट, बार्किंग डिअर, हिमालयन गोरल, काला भालू, तेंदुआ, येलो थ्रोटेड मार्टिन, सिवेट कैट और लेपर्ड कैट आदि जंगली जीव जन्तु पाए जाते हैं। इन्ही जंगलों के बीच एक कठोर पथरीली चोटी दिखाई पडती है। जिसे महाजन टिब्बा कहा जाता है। किसी भी एडवेंचर प्रेमी के मन में इसे एक बार चढ़कर फतेह करने का मन जरुर करता है। दोप्ती तक रास्ता सीधा-२ ही जाता है। जिसके बाद इसमें धीरे-२ चढाई आने लगती है। और एक पड़ाव ऐसा आता है जब बिलकुल खड़ी चढाई का सामना करना पड़ता है।

भुभु नाला 

बादलों के बीच से निकलती किरणें घने जंगल की सुन्दरता पर चार चाँद लगाते हुए 

महाजनी टिब्बा  (सर्दियों के समय का फोटो)

दोप्ती वह जगह है जहाँ प्रस्तावित भूभू जोत टनल बनकर निकलेगी। इसके बनने से कुल्लू से जोगिंदर नगर की दूरी लगभग 59 KM घट जाएगी लेकिन यह प्रोजेक्ट राजनीती की मार झेलता रहा है और अभी भी कामयाब नहीं हो पाया है।

चढाई चढ़ते हुए कई फूलदार पौधे हमें देखने को मिले, जिसमें Roscoea spp, Eriocapitella rivularis, arisaema spp, मुख्य थे। चढाई के साथ घनी धुंध भी हमारे साथ आँख मिचोली खेल रही थी। कभी हटती तो कभी फिर आ जाती। इस चढाई के दौरान Menina को सामान के साथ काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। जिसे देखते हुए आधे रास्ते में मैंने उनके पिट्ठू को उठाना ठीक समझा। अकसर ऐसी खड़ी चढाई में दूरी का सही अनुमान लगाना मुश्किल होता है। ऐसा लगता है जैसे अभी कुछ देर में ही पहुंच जायेंगे, परन्तु यह मात्र भ्रम होता है। और जो व्यक्ति इस भ्रम में पड़ जाता है वह बार-बार हताश होकर बहुत थक्का हुआ महसूस करता है। शायद Menina के साथ भी यही हुआ था।

मैं Menina के पिट्ठू के साथ। वैसे आंखमिचोली करती धुंध आपको इसमें साफ़ नजर आ रही होगी 

Arisaema spp, Roscoea spp, Eriocapitella rivularis

धुंध में कहीं छिपा हुआ  भुभु गला 

सफर ज्यों-2 ऊँचाई की ओर चलता गया घाटी के सुंदर भू-दृश्य और भी निखर के नजर आते गये। पूरे  सफर में हमने 2 जगह विश्राम किया। दिन के लगभग 1 बजे थे जब हम भूभू गला पहुंचे। जिसकी ऊंचाई लगभग 2900 मीटर के करीब है,। हमारे विदेशी मेहमानों के चेहरे में कामयाबी की बड़ी मुस्कान थी जैसे उन्होंने कोई कीला जीत लिया हो।

ऊँचाई पर जाते हुए कुछ इस तरह भू-दृश्य निखर के आ रहे थे  

भुभु गले में पहुंचने की ख़ुशी सबके चेहरे में साफ़ नजर आ रही है विशेषकर विदेशी मेहमानों के 

इतिहास की बात करें तो भभु जोत रियासत काल से ही कांगड़ा जाने का सबसे छोटा रास्ता हुआ करता था। जो सबसे जल्दी कांगड़ा पहुंचाता था। लेकिन यह रास्ता सर्दियों में भारी बर्फ के कारण बंद हो जाता था और मार्च तक बंद ही रहता था। इस दौरान कुल्लू से जुड़ने का एक मात्र साधन दुल्ची जोत रहता था। जो पूरी साल खुला रहता था ।

पंजाब गज़ेटियर, मण्डी स्टेट (1920)

मैं और विशाल केवल यहीं तक की सोच कर आये थे। हमारा कुल्लू जाने का कोई प्लान नहीं था। इसलिए हमने मेहमानों से विदाई ली और भूभू गले से थोडा उपर की ओर जाकर कोई अच्छी से जगह पर खाना खाना उचित समझा। परन्तु वहां उपर से देखने पर कुल्लू की लग घाटी के गाँव इतने नजदीक दिख रहे थे कि मैं खुद को कुल्लू की ओर खिंचा जाने से रोक न पाया। मेरे कुल्लू से लगाव की वजह वहां बिताया लम्बा समय है। मेरी बचपन से लेकर पूरी पढाई कुल्लू में ही हुयी है। और वन विभाग में आने से पहले तक मैं कुल्लू ही रहता था। इसलिए कुल्लू मेरे लिए एक दूसरा घर जैसा है।

मैं, विशाल और Mate (डेनमार्क से )

खाना खाते हुए भी मेरे दिमाग में केवल कुल्लू ही चल रहा था। ज्यादा वक्त बर्बाद न करते हुए हम दोनों खरसु के जंगलों से होकर नीचे उतरे। जैसे भूभू जोत पहुंचने में खड़ी चढाई का सामना करना पड़ता है। वैसे ही जोत की दूसरी ओर सीधी उतराई से गुजरना पड़ता है। हम दोनों काफी गति से नीचे उतर रहे थे कि रास्ते में फिर हमारे कल के मेहमानों से मिलना हुआ। जिससे हमारी गति धीमी होकर उनकी गति सी हो गयी। और तभी सुबह से अठखेली करते बादल भी बरस पड़े। मानों कुल्लू में हमारे आने का स्वागत कर रहे हो। यह देखते हुए आस पास के 2,3 घने पेड़ों तले तब तक आराम किया गया जब तक बारिश थम न गयी। यह पूरा सफर रई तोस के जंगलों से होता हुआ चौड़ी पत्तियों के जंगल तक ले जाता है। आखिरकार हम लगभग 4.30 बजे के करीब कढ़ोन नामक जगह पर कुल्लू को जाती सड़क तक पहुंचे। इधर उधर बस का पता करने पर जानकारी मिली कि अंतिम बस जो 4 बजे जाती थी, वह हमसे छूट गयी है। और अब लिफ्ट लगभग 5 KM के सफर के बाद ही मिल पायेगी। चलते-२ हमें रुजग में पांचाली नारयण मन्दिर के दर्शन हुए। और अंततः शालंग कालंग से कुल्लू जा रही टाटा सूमो गाड़ी ने हमें लिफ्ट देकर कुल्लू के ढालपुर मैदान तक पहुंचाया।
कुल्लू की ओर के घने वन 

मंदिर पांचाली  नारायण